सोमवार, 24 नवंबर 2008

बचपन की एक और कविता / Another childhood poem

ये कविता मेरी बड़ी जिज्जी ने (जो मुझसे २० वर्ष बड़ी हैं) लिखी थी। बचपन से इसे सुनता आ रहा हूँ क्योंकि एक टेप में पिताजी ने रिकॉर्ड कर ली थी। सुन सुन कर रट गयी। काफ़ी बड़े होने पर पता चला कि ये एक छायावादी कविता है जिसमें प्रकृति वर्णन के साथ साथ उन्ही पंक्तियों को ध्यान से पढ़ने पर एक बिलकुल ही दूसरा अर्थ निकल कर आता है जिसमें गहन जीवन दर्शन समाहित है।
जिज्जी ने इस कविता को अपने काव्य संग्रह में या जालघर पर नहीं रखा। इसे भी भूलने - खोने के डर से मै विश्वजाल पर डाल रहा हूँ।

झड़े हुए वृक्ष की टहनियों के बीच से
लाल सा गुलाल भरा सूरज डूब जाता है

पानी जब बरस बरस फिर से रुक जाता है
शीत पवन मधुर मधुर जीवन रस लाता है
मेंढक या झींगुर का बोल जभी आता है
झड़े हुए वृक्ष की टहनियों के बीच से
लाल सा गुलाल भरा सूरज डूब जाता है

रेत जब बदल कर चाँदी बन जाती है
नदियों की कलकल भी शोर ज़रा लाती है
माझी भी नाव जब तीरे ले आता है
झड़े हुए वृक्ष की टहनियों के बीच से
लाल सा गुलाल भरा सूरज डूब जाता है

बचपन की कविता / Childhood poem

शायद पहली या दूसरी क्लास में ये कविता पढ़ी थी। जाने कैसे अभी तक इसके कुछ अंश याद हैं। अच्छी लगती है और आज की किसी पाठ्य पुस्तक में दिखती नहीं। मैने शायद "बाल भारती" में पढ़ी थी। खोने या भूलने के डर से इसे विश्वजाल में डाल रहा हूँ।

अम्मा ज़रा देख तो ऊपर,
चले आ रहे हैं बादल।

गरज रहे हैं बरस रहे हैं,
दीख रहा है जल ही जल।।

हवा चल रही क्या पुरवाई,
झूम रही डाली डाली।

ऊपर काली घटा घिरी है,
नीचे फैली हरियाली।।

भीग रहे हैं खेत बाग वन,
भीग रहे हैं घर आँगन।

बाहर निकलूँ मैं भी भीगूँ,
चाह रहा है मेरा मन।।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

मेरी दूसरी कविता / My second poem

जीवन में कभी सोचा नहीं था कि कविता कर सकता हूँ। मजबूरी में करनी पड़ी तो अच्छा खासा कुण्डलिया छंद बन गया। कुछ खास तो नहीं पर पहले प्रयास के हिसाब से तो ठीक ही लगता है। क्यों?

सवाल है कुछ लिखने का, विचित्र मन का भाव
कविता लिखने के लिये, खा रहा मैं ताव
खा रहा मैं ताव, रह गया हक्का-बक्का
जाम हो गया सर का, घूमने वाला चक्का
उसको चालू करने को, नोच रहा मैं बाल
बन गई कुण्डलिया, हल हुआ सवाल