लगभग हफ़्ते भर पहले हमारी बेटी का जन्म हुआ। भारतीय पुरुषों में ऐसे विरले ही होंगे जिन्हे अपनी संतान को जन्म लेते हुए देखने का सौभाग्य प्राप्त होता होगा। मुझे यह इसलिये नसीब हो पाया क्योंकि प्रसव मेरी पत्नी की मामीजी के यहाँ हुआ जिनका अपना मैटरनिटी होम है और जो स्वयं वहाँ की मुख्य चिकित्सक हैं। इस बारे में हमने पहले ही उनसे बात कर ली थी फिर भी सारे समय किसी न किसी बहाने मुझे बाहर भेजने की कोशिश चलती रही और काफ़ी कठिनाई से ही मै सारे समय साथ रह पाया।
मेरी समझ में नहीं आता कि जब मेरी पत्नी की भी यही इच्छा है और मै इस बात का बारम्बार वचन दे रहा हूँ कि मै उनके किसी काम में बाधा नहीं डालूँगा तब भी मेरे साथ रहने पर किसी को इतनी परेशानी क्यों है। लगता है कि यहाँ पुरुषों का काम विवाह, संभोग, और भरण-पोषण तो है पर पति-पत्नी एक दूसरे के भावनात्मक संबल हो सकते हैं यह बात किसी के गले नहीं उतरती।
प्रसव पीड़ा सच में भयंकर होती है पर उसके लिये मै फिर भी तैयार था। जिसके लिये नही था वह था चीरा। गूगल पर
episiotomy खोजिये तो आपको इस अमानवीय प्रक्रिया के बारे में पता चलेगा कि कितनी संदेहास्पद और खतरनाक होते हुए भी लगभग सभी डाक्टर इसे अपनी सहूलियत के लिये कर ही डालते हैं। इसकी आवश्यकता बहुत ही कम पड़ती है और इतना तो मामी भी मान रही थीं कि इसका प्रयोग ज़रूरत से ज़्यादा होता है। पर वह भी प्रथम प्रसव में इसे परमावश्यक मानती हैं। उस समय मैं बहस करने की अवस्था में नही था और वैसे भी, स्वयं डॉक्टर न होने की वजह से मेरी किसी बात का कोई प्रभाव तो पड़ना नही था। मामी से इतनी प्रार्थना की थी कि अगर उन्हें लगे कि इसके बिना काम नही चल सकता तभी इसका प्रयोग करें। और मामी ने
- उन मामी ने जिन्हें बारह साल का प्रसूति कार्य का अनुभव है
- उन मामी ने जो लगातार मेरी पत्नी के पास बैठकर उसकी घंटों की प्रसव पीड़ा में साथ दिया
- उन मामी ने जिन्होने मेरी पत्नी और बच्ची की सेवा-शुश्रूषा इतनी की कि मै जीवन भर उनका ऋणी रहूँगा
उन मामी ने अपनी "प्रथम प्रसव में आवश्यक" सोच के कारण चीरा लगा ही दिया।
प्रसव पीड़ा के कई घंटे उस आधे घंटे के आगे कुछ नही थे जो उस चीरे की सिलाई में बीता। इस एक घाव ने हमारी बेटी के जीवन के आरम्भिक दिनों ने जो खुशी दी उनमें ग्रहण लगा दिया। एक माँ को बैठने में, अपने बच्चे को दूध पिलाने में कष्ट हो इससे दुख की और क्या बात होगी। यह दुख हम आज तक झेल रहे हैं।
मुझे कोई दुख न होता अगर मुझे यह पता न होता कि यह प्रक्रिया कितनी अनावश्यक है। अगर हमारी बेटी साढ़े तीन किलो या अधिक की होती तो बड़े बच्चे के लिये आवश्यक सोचकर अपने को समझा लेता। जब यह पता चला कि आज भी जब गाँव आदि में दाइयाँ प्रसव करवाती हैं तो शायद ही कभी चीरा लगता है - तो दुख और बढ़ा। और तब तो हद हो गई जब यह पता चला कि दूर-दूर तक रिश्तेदारी में सभी महिलाओं के डॉक्टरों द्वारा चीरा लगा है और सब इसे साधारण रूप में ले रहे हैं।
आज की तारीख में सारी जानकारी, सारे शोध, सारे मत यही कहते हैं कि चीरे से कोई लाभ नहीं है। अत्यंत विशेष परिस्थितियों में ही इसका प्रयोग किया जाना चाहिये। पर हमारी माँयें, बहनें, पत्नियाँ और बेटियाँ हमारे देश की आलस्यपूर्ण मानसिकता के कारण इस भयानक कष्टदायक प्रक्रिया की भेंट चढ़ रही हैं। हमारे बच्चे अपने जीवन के आरंभिक दिन एक प्रसन्न माँ की जगह एक पीड़ा से कराहती माँ की गोद में गुज़ारते हैं। अपने देश के पुरुषों को तो वैसे ही महिलाओं की किसी बात से कोई सरोकार नहीं होता। कम से कम महिलायें ही इसके बारे में सोचें। यहाँ तो लगभग सभी प्रसूति और स्त्री विशेषज्ञ महिलाएँ ही हैं। फिर भी हमारे देश की माताएँ क्यों चीरी जा रही हैं? आखिर क्यों??
About one week back we were blessed with a baby daughter. I became one of the very little number of Indian fathers that have been fortunate enough to witness the birth of their child. In no small measure, this was due to the cooperation of the doctor who was my wife's aunt as well. She runs her own maternity clinic and that is where we had the baby. Although we had discussed my presence beforehand, I was being asked to leave for one reason or the other and it was only with difficulty that I was able to remain the whole time with my dear wife.
I fail to comprehend the reason behind their hesitation when this was what my wife wanted and I had promised them time and again that I would not obstruct them in any of their activities. It seems that in our country the role of the husband is limited to marriage, sex and material well being. It is a strange notion for most people that me and my wife are each other's emotional support too.
Labour pains are horrible but at least I had expected and prepared for them. What I wasn't prepared for was the
episiotomy. Search this word on Google and you will find a wealth of material about this inhuman procedure. How this procedure is being carried out indiscriminately by doctors in spite of its doubtful necessity and attached risks. It is needed only in special cases and even our doctor aunty accepted that it is being used more than needed. But she too deemed it necessary for first pregnancies. At the time, I was not in a state to start an argument and anyway, my arguments held little weight since I am not a doctor myself. I only beseeched her to do it only if it seemed absolutely unavoidable. And she
- she who has tweleve years of experience in obstetrics
- she who stayed and comforted my wife for the whole duration of the many hours of labour
- she who has nursed and cared for my wife and daughter so much that I will remain grateful to her for my whole life
she performed the episiotomy unhesitantly due to her "necessary in first pregnancy" mindset.
The many hours of labour were nothing compared to the thirty minutes my wife spent whimpering during the stitching of the episiotomy. This one pain almost destroyed the happiness of our daughter's first few days. What can be more sorrowful than seeing a mother in pain when sitting to nurse her newborn. This is something we are having to live with till today.
I wouldn't be so despondent if I didn't know how unnecessary this procedure was. If our daughter was more than three Kg, I would have consoled myself that it was necessary due to the size of the baby. When I came to know that in villages etc. where illiterate midwives assist childbirth, there is almost no instance of episiotomy, my frustration increased many times. I really boiled with rage when I found out that almost every female relative we know of has had an episiotomy by the doctor and is taking this as nothing out of the ordinary.
As of today, all knowledge, research and opinions agree that episiotomy provides almost no advantages and its use is required in only specialized circumstances. Even so, our mothers, sisters, wives and daughters are being subjected to this cruel procedure all the time due to the apathetic mentality of our populace. Our children spend the first days of their existence not in the lap of a smiling and relaxed mother but one who is almost crying out in pain. The menfolk of this country already spare no thought for the women. Shouldn't at least women think for themselves? Almost all of the obstetricians and gynecologists in this country are women. Then why are our mothers being cut and slashed? Oh why??